भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बचपन - 30 / हरबिन्दर सिंह गिल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज का बचपन बहुत कशमकश
जिंदगी के दौर से गुजर कर
जवान होकर मानव बनता है।

कशमकश व्यवसाय के चुनाव का
कशमकश व्यवसाय में लगी प्रतिस्पर्धा का
कशमकश सीमित साधनों का
कशमकश आकांक्षाओं की वृद्धि का।

इसलिए आज के युग में
यदि सफलता का हार पहनना है
तो बचपन को भी व्यवसायिक बनाना होगा।

माल लो मैं चाहूं मेरा बच्चा
खेल के किसी मैदान में
दूसरों की तरह सोने के तगमों का हार पहने
परन्तु जब नजदीकी से देखता हूँ
पता लगता है कोई इस उम्र में
पहले ही विश्व रिकार्ड तोड़ चुका है।

और इससे पहले कि वह अपने
बचपन का चोला छोड़ पाए,
सेवानिवृत्त हो जाता है
बुलंदियों की ऊचाईयों को छूकर।

सोच सकते हो कशमकश की दौड़
और वैज्ञानिक युग में बचपन की रफ्तार।