भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बचपन - 4 / हरबिन्दर सिंह गिल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बचपन के दिनों को
जब कभी भी झांक कर देखता हूँ
जिंदगी बहुत समीप लगती है।
ऐसा लगता है
बीते हुए कल के पल
जब नन्हे-नन्हे डगमगाते पैरों से
जीवन की राह पर चलना सीखा था,
शायद मानव के दौड़ते कदमों को
बहुत पीछे छोड़ आए हैं।

ऐसा लगता है
बीते हुए कल की यादें
जब माँ-बाप की उंगलियाँ थामे
जीवन की मुश्किलों से जूझना सीखा था
शायद मानव के सामाजिक कर्तव्यों को
बहुत पीछे आए हैं।

ऐसा लगता है
बीते हुए कल के क्षण
जब तुतला-तुतला कर ”क“ ”ख“ दोहराते हुए
जीवन के ज्ञान को समझना सीखा था
शायद धार्मिक और सामाजिक शास्त्रों को
बहुत पीछे छोड़ आए हैं।