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बचपन - 7 / हरबिन्दर सिंह गिल
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जब कभी डूबते सूर्य की गिरणों पर
थके-हारे मन की दृष्टि पड़ती है
अपने बचपन के सुबह की
चमकती किरणों का
अनायास ही आभास हो उठता है।
जिसके आगमन के साथ ही
स्कूल के घंटे की आवाज
कानों में गूंजने लगती है
जो बचपन को आगाह करती थी
प्रज्जवलित कर अपनी आत्मा को
विद्या के आँगन में
जलती ज्ञान की ज्योति से।
नहीं तो डूबते सूरज की किरणों से
जिंदगी में रोशनी की आशा न करना।
फिर न दिन के उजाले में
अपना साय ही दिखाई देगा
और न रात के अंधेरे में
झूठे सुनहरे सपने ही।