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बचा लो / अनुराधा सिंह
Kavita Kosh से
मैं कहती हूँ
बचा लो यह प्रेम
जो दुर्लभ है
इस्पात और कंक्रीट से बनी इस दुनिया में
तुम बचा लेते हो अहम् का फौलाद
दो कांच आँखों में एक पत्थर सीने में
मैं कहती हूँ बचा लो
हमारे साथ का अर्धउन्मीलित बिम्ब
काँपता मेरी आँखों की बेसुध झील में
तुम बचा लेते हो दर्द की हद पर सर धुनता मेरा पोर्ट्रेट
चाहती हूँ कि अपने मौन के नीचे पिसता
वह नाज़ुक सोनजुही शब्द बचा लो
जो महमहाता हो प्रेम
तुम सिर्फ बचा पाते हो अनंत प्रतीक्षा मेरे लिए
दुनिया में जब बहुत लोग बहुत कुछ
बचाने की कोशिश में हैं
मुझे लग रहा है तुम्हारी नीयत ही नहीं
इस लुप्तप्राय प्रेम को बचाने की
जिसे कर पा रही है
पृथ्वी की एक दुर्लभ प्रजाति
बस यदा कदा।