बची एक लोहार की (नवगीत) / राम सेंगर
बढ़े फासले
अपरिचयों के
और भी
साझेदारी कैसी भाव - विचार की !
रिश्ते होते
नये अर्थ को खोलते
संग - साथ के
सहकारी उत्ताप से ।
उड़ीं परस्परता की
मानो धज्जियाँ
अविश्वास के
इसी घिनोंने पाप से ।
जोड़ - तोड़ की होड़ों में
धुन्धुआ गई
पारदर्शिता, आपस के व्यवहार की ।
गवेषणा में
सच के पहलू दब गए
जो उभरा सो
सच से कोसों दूर था ।
बात उठी ही नहीं
निकष के दोष की
पड़तालों का
मुद्दा उठा ज़रूर था ।
चोरद्वार से
छल नीयत में आ घुसा
धरी रही अधलिखी पटकथा प्यार की ।
समरसता में
छिपा सिला तदबीर का
बने महास्वर
कलकण्ठों के राग से ।
पटरी पर आते
दिन अच्छे एक दिन
तमस काटते
अपनी मिलजुल आग से ।
हुआ न ऐसा कुछ
सुनार की सौ हुईं
विपर्यास पर, बची एक लोहार की ।