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बचे हुए गाँव की ओर / गौरव पाण्डेय

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यदि हम बचे
तो जरूर लौटेगें गाँव
यदि बचे होंगे गाँव
तो गाँव मे अभी भी बचे होंगे
कुछ पेड़
तो रास्ते में बची होगी
थोड़ी सी छाया भी
उसी छाया में
दुपहरी से बचने को बैठे होंगे
कुछ मजदूर भी
थका हुआ पथिक भी
बेटी के वर की तालाश में निकला पिता भी
बचा होगा नमक-प्याज-रोटी का स्वाद
बची होगी गुड़ की भेली
बचा होगा थोड़ा सा सेतुआ
आस पास ही कहीं बचा होगा
ठंडे पानी वाला कुंआ भी
और बचा ही होगा
बटोही को रोक कर बैठा लेने का संस्कार भी
मिल ही जाएगा
बिन माँगे थोड़ा सा सत्तू
गट्टी भर प्याज
न न करते हुए खा जाएंगे भेली
खूब छककर पी लेंगे पानी
खबर-हाल पूछकर
अपने-अपने धाम को चलेंगे
राम-राम कर

चलते चले जाएंगे सड़कों पर
उतर जाएंगे बची हुई पगडंडियों में
दौड़ जाएंगे कुछ दूर बचे हुए खेतों में
बचे हुए खेतों में
बची होंगी थोड़ी कच्ची-पक्की फसलें
फसलोँ के सहारे बचे होंगे किसान
बचे होंगे किसान
तो जरूर बचे होंगे बैल
और बचे होंगे गाँव किनारे के तालाब भी
तालाब बचे होंगे तो
बचे होंगे कुछ और पशु-पछी
बची होगी थोड़ी घास भी
घास छीलती बूढी औरते भी बची होंगी
पूछ ही लेंगी हमसे
'कौन देश से आये हो...
...कौन देश को जाओगे'

हम मुस्कुराएगें, दूर से चिल्लाएगें
"अरे अम्मा हम हैं हम...
...नहीँ पहचाना"

'बेटवा अब कम देखात है'

हम सुनेंगे नहीं
बढ़ते चले जाएंगें
बची हुई धूप का
बची हुई हवा का
बचे हुए पानी का
बची हुई धरती और बचे हुए आकाश के बीच
अपने बचे होने के उत्साह में
उत्सव मनाते चले जाएंगे
                     हम बचे हुए गाँव की ओर...