भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बच्ची / तेजी ग्रोवर
Kavita Kosh से
एक दिन
अपने हिस्से का लावण्य मैंने उसे दिया
बहुत धुआँसी थी धूप उस दिन की
और मुझ पर एक मोरपंखी ओढ़नी
उसे लेने की जगह वह नहीं खड़ी थी
डिठौना लगाए वह सन्तरे के छिलकों को देख रही थी
लावण्यहीन टकटकी में उसका एक दिन
पृथ्वी पर, मेरे मन में भारी था
कहीं गए हैं
उसे बताए बिना उसके सगे कहीं गए हैं
मैं यहीं हूँ
और आज के दिन
सौन्दर्य के बिना रह सकती हूँ