बच्चे: करुणा से गढ़ा भविष्य / पूनम चौधरी
बच्चे—
आँगनों में खिलखिलाती
किलकारियाँ नहीं,
अनलिखे घोषणापत्र हैं
भविष्य के,
जिसे हम अंधी महत्वाकांक्षाओं से,
बना रहे हैं अधूरे ।
उनकी आँखों में
झिलमिलाते तारे,
प्रश्नों की चमकती मशालें हैं—
जिन्हें हम बुझा देना चाहते हैं
अपने यांत्रिक उत्तरों से।
पर हर उत्तर
एक जालीदार दीवार है,
हर प्रश्न
उस दीवार पर हथौड़े की चोट।
वे जब मिट्टी से खेलते हैं,
तो वे सीख रहे होते हैं
अपने परंपराओं और जड़ों से जुड़ाव,
उनकी हथेलियों में लगी धूल
संसार की पहली स्मृति है—
जिसे हम, अपने चमकदार शहरों में,
भूल जाना चाहते हैं।
वे जब गिरते हैं
तो धरती उन्हें दंड नहीं देती—
धरती उनके साथ गिरती है,
उनके साथ उठती है,
पर हम?
हम उनकी गिरावट को
अपराध बना देते हैं।
वे गलती करते हैं—
पर वह गलती नहीं,
प्रयोग है, नदी की तरह,
जो रच देती है
नयी धाराएँ
चट्टानों के बीच से।
पर हम
हर प्रयोग को
अनुशासन की लाठी से कुचल देते हैं।
और जब कोई बच्चा
विश्वास से बोलता है,
तो वह अकेला नहीं बोलता—
वह भविष्य बोलता है,
सभ्यता बोलती है।
और जब वह भय से चुप हो जाता है,
तो समझो,
एक सम्पूर्ण युग
अपने पहले ही शब्द में मूक कर दिया गया।
बच्चों के साथ चलना—
उनका अनुगमन नहीं,
बल्कि सहयात्री बनना है
उनके रास्तों पर,
जहाँ हर पत्ता एक नयी लिपि है,
हर चींटी की कतार
धरती का गणित,
हर ध्वनि
एक हृदय की धड़कन।
वे बार-बार दिखाते हैं,
बार-बार बताते हैं,
कि दुनिया अभी बनी नहीं है,
हर पल बन रही है—
और हम उसे कठोर नियमों की दीवारों में
कैद कर देना चाहते हैं।
बच्चे धरोहर नहीं—
वे वर्तमान की धड़कन हैं।
वे मिट्टी हैं
जिन्हें आकार नहीं,
सहारा चाहिए।
वे बीज हैं
हिंसा का खाद नहीं,
सूरज का उजास,
और
बरसात की संवेदना चाहिए।
यदि हम दें पाए
संवाद का जल,
समझ की छाया,
और
प्रेम की उष्मा,
तो भविष्य शक्ति से नहीं,
करुणा से लिखा जाएगा
और युग होगा मनुष्यता का
जहाँ मनुष्य
मनुष्य कहलाने लायक होगा।
अन्यथा
बनेगा ऐसा समाज,
जहाँ मौन होंगे बच्चे,
भविष्य भी साध लेगा चुप्पी
किंतु हर भूल का शोर
गूँजेगा इतिहास के पन्नों पर
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