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बच्चे चाहिए / मिथिलेश श्रीवास्तव

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लोग जो अपने बच्चों को पेट भर खाना
खिला नहीं सकते बच्चे ज़रूर जनते हैं इस
उम्मीद में कि यहाँ कोई कितना ही
अभागा क्यों न हो तक़दीरें बदलती हैं
तक़दीरें यहाँ कुछ इस तरह बदलती हैं
कि भीख माँगते और गन्दी पोशाकों में खेलते बच्चे
जेबकतरे मान लिए जाते हैं
अपाहिजों से उम्मीद की जाती है कि भोजन पाने के पहले वे कुछ काम करें

विकास के पक्ष में दलीलें देने वाले योजनाकार
कहते है : बच्चे पैदा न किए जाएँ

लेकिन बच्चे चाहिए
राष्ट्रीय ध्वज फहराते राष्ट्रपति को कौतूहल से देखने के लिए
योजनाकारों के घरों में पालने झुलाने के लिए
सूरज के रथ में घोड़ो की जगह जुत जाने के लिए

बच्चे चाहिए
कैनवस पर मासूमियत और क्रूरताओं के प्रतीकों के लिए
फ़िल्मों में रोने और कविता में सन्नाटा बुनने के लिए
ढाबों में ग्राहकों की झिड़कियाँ सुनने
और टूटे हुए बल्लों और निस्तेज गेंदों से गलियों में
क्रिकेट खेलते हुए शतकों के सपने देखने के लिए
ब्लैक-बोर्डों के स्थिर मरे हुए सफ़ेद अक्षरों के लिए

लावारिसख़ानों को बच्चे चाहिए
ताकि खाने के पैकेट मुफ़्त बाँटे जा सकें ।