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बच्चे बड़े हो रहे हैं / अशोक पांडे

Kavita Kosh से
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घर पर हर चीज़ तरतीब से रहती है जगह पर मिल जाती है बच्चे बड़े हो रहे हैं पिता कभी झल्लाते थे कि जगह पर कभी नहीं मिलती चीज़ें इस घर में दुबकना पड़ता था बात-बात पर मां के आंचल में बच्चे तब बड़े न थे

बच्चों की चिठ्ठियां खोलने से कतराती है मां और पिता देखने से घबराते हैं बच्चों की किताबों की शैल्फ़

देर रात तक बच्चों के कमरे की बत्ती जली रहती है पर पिता डांटते नहीं पिता झल्लाते नहीं क्योंकि जगह पर मिलता है नेलकटर सुई धागा कैंची पेंचकस सब जगह पर मिल जाता है बच्चे बड़े हो रहे हैण

रात देर से घर आने का कारण नहीं पूछती बेवक़्त सवाल नहीं करती मां क्योंकि क्या मालूम नासमझ बड़े हो रहे बच्चे कब क्या कर डालें कब क्या कह दें </poem>