भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बच्चों की रोटी / बैर्तोल्त ब्रेष्त / वीणा भाटिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उन्होंने रोटी नहीं खाई
जो लकड़ी के बॉक्स में थी
लेकिन चिल्लाए
इसके बजाय
वे चट्टानें खाना चाहते थे

इसलिए
बासी रोटी पर
फफून्द उग आई
बिना खाई गई
वह यूँ ही पड़ी रही और
आकाश की ओर घूरती रही
उसने गोदामों को बोलते सुना
एक दिन ऐसा होगा कि लोग
रोटी के छिलके की ख़ातिर
लड़ मरेंगे
और महज गन्धों के स्वाद से
मजबूर होंगे पेट भरने के लिए

बच्चे चले गए थे
रास्तों पर घूमने
जो अनजाने देशों की ओर ले जाते थे
और जहाँ ईसा के भक्त नहीं मिलते थे
धर्म के महन्तों ने
उन्हें कुछ नहीं दिया
बल्कि उन्हें यूँ ही तड़पने को छोड़ दिया

धर्म के महन्तों ने
बच्चों के भूख से तड़पते हुए देखा
जिनके चेहरे पीले और कुम्हालाए हुए थे

उन्होंने
उन बच्चों के कुछ भी नहीं दिया
भूखा तड़पने दिया

संकट अब आ पहुँचा
अब वे रोटी के छिलके की खातिर लड़ेंगे
और महज गन्धों से भूख शान्त करेंगे ।

रोटी तो
पशुओं को खिलाई जा चुकी है
वह सड़ गई थी
और बहुत सूखी भी

इसलिए
हे ईश्वर
तुम अपनी दुनिया में
उनकी ख़ातिर थोड़ी रोटी बचा रखना ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : वीणा भाटिया