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बच्चों को देखती है, दफ़्तर को देखती है / गरिमा सक्सेना
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बच्चों को देखती है, दफ़्तर को देखती है
दफ़्तर से लौटकर वो, फिर घर को देखती है
वह देखती है ख़तरे, धरती के आसमां के
जब घर को देखती है, बाहर को देखती है
कितनी ही सिलवटों से वो जूझती है भीतर
जब सिलवटों को ओढ़े बिस्तर को देखती है
जिस देवता पे उसने ख़ुद को किया समर्पित
उस देवता में अब वो, पत्थर को देखती है
जिस तितली को रुपहले पंखों पे कल गुमां था
अब ज़ख्मों के निशां ओ, नश्तर को देखती है