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बजाए-होश जनूं दिल का राहबर होता / कांतिमोहन 'सोज़'

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बजाए-होश जनूं दिल का राहबर होता ।
तो कोई वज्ह न थी अब ये दर्दे-सर होता ।।

जो अपने बाप के सन्दूक में भी ज़र होता
तो उसके पूत की क़िस्मत में क्यूँ सिफ़र होता ।

मुझे गिला न मुक़द्दर से है न दुनिया से
ज़माना होता उधर सिर्फ तू इधर होता ।

तुम्हीं ने मेरी ख़बर ली न एक ज़माने से
वगरना मैं भी ज़माने से बेख़बर होता ।

वो जिसने दिल को हमारे बना दिया छलनी
अगर रफ़ीक़<ref>दोस्त</ref> न होता तो हमसफ़र होता ।

सितम की रात के सायों से लड़ लिए होते
अगर ख़ुद अपने रिसालों पे कुछ असर होता ।

अब और सोज़ को ढूँढ़े कहाँ वो दीवाना
तुम्हारे दर पे नहीं था तो दार पर होता ।।

शब्दार्थ
<references/>