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बजा कि पाबन्द-ए-कूचा-ए-नाज़ हम हुए थे / अब्दुल अहद 'साज़'
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बजा कि पाबन्द-ए-कूचा-ए-नाज़ हम हुए थे
यहीं से पर ले के महव-ए-परवाज़ हम हुए थे
सुख़न का आग़ाज़ पहले बोसे की ताज़गी था
अज़ल-रुबा साअतों के हमराज़ हम हुए थे
जहाँ से मादूम थी ख़ुश-आइन्दगी सफ़र की
वहीं से इक लम्हा-ए-तग-ओ-ताज़ हम हुए थे
यहाँ जो इक गूँज दाएरे से बना रही है
इसी ख़मोशी में संग-ए-आवाज़ हम हुए थे
रवाँ-दवाँ इंकिशाफ़-दर-इंकिशाफ़ थे हम
जो मुड़ के देखा तो सेग़ा-ए-राज़ हम हुए थे
उफ़ुक़ था रौशन न मुर्तइश पानियों पे किरनें
ग़लत ज़ंजीरों पे लंगर-अन्दाज़ हम हुए थे
कुरेदते फिर रहे हैं अब रेत साहिलों की
वही जो ग़ोता-ज़न-ए-यम-ए-राज़ हम हुए थे
जुमूद का एक दौर गुज़रा था फ़िक्र-ओ-फ़न पर
तवील अर्से के ब'अद फिर 'साज़' हम हुए थे