भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बजा की आँख में नींदों के सिलसिले भी नहीं / परवीन शाकिर
Kavita Kosh से
बजा कि आँख में नींदों के सिलसिले भी नहीं
शिकस्त ए ख़्वाब कि अब मुझमें हौसले भी नहीं
नहीं नहीं ये खबर दुश्मनों ने दी होगी
वो आए आके चले भी गए मिले भी नहीं
ये कौन लोग अंधेरों की बात करते हैं
अभी तो चाँद तिरी याद के ढले भी नहीं
अभी से मेरे रफूगर के हाथ थकने लगे
अभी तो चाक मिरे ज़ख्म के सिले भी नहीं
खफा अगरचे हमेशा हुए मगर अबके
वो बरहमी है कि हमसे उन्हें गिले भी नहीं