भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बजा हुआ शंख / विशाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: पंजाबी के कवि  » संग्रह: आज की पंजाबी कविता
»  बजा हुआ शंख


एक दिन मैंने उससे कहा
कि मुझे तेरा कांधा चाहिए
तो उसने कहा-
‘बात कहने के लिए
तुझे शब्दों की ज़रूरत क्यों पड़ती है?’

और फिर एक दिन आई
और कहने लगी-
‘हवा में तैरती उंगलियों को मैं क्या समझूँ
अपने रिश्ते का कोई नाम ही रख दे!’

प्रत्युत्तर में मैंने कहा-
‘समझने के लिए
तुझे अर्थों की ज़रूरत क्यों पड़ती है?’

वह इतनी ज़ोर से हँसी कि मुझे लगा
कहीं रो ही न दे
उसने हँसते-हँसते कहा-
‘मूर्ख है निरा तू भी
और मैं भी किसी पगली से कम नहीं!’

मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव