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बज रहा है गाल / प्रभात कुमार सिन्हा
Kavita Kosh से
इसका अयाल हिल रहा है
इसकी दाढ़ी हिल रही है
एक-एक चूलें हिल रही हैं इसकी
फिर भी हंस रहा है यह आदमखोर
लंठ-संतों के साथ झाल बजा रहा है यह विशेष बाघ
इसके गाल भी बज रहे हैं
कलमकारों !
झांझ बजाते हुए उनके कीर्त्तन में
शामिल होने का यह समय नहीं है
सम्मोहन छोड़ते जलविहीन बादलों जैसे प्रतीकों से
कविता गढ़ना बन्द करें
आपकी कविताएं घुटने के बल खड़ी हो रही हैं
संस्कृति का बवण्डर फैलाने वाले आदमखोरों के
झांसे में मत आएं
अगर आ गये तो भांड़ समझे जायंगे
हिम्मतवाज कविताएं स्वयं को अनावृत्त कर रही हैं
बस इनकी परतों को हटाकर
आपको देखना होगा अपना चेहरा
लंठ-संतों के साथ
झाल बजा रहा है बाघ
उसके गाल भी बज रहे हैं ।