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बटुआ-1 / नज़ीर अकबराबादी
Kavita Kosh से
देख तेरा यह झमकता हुआ ऐ जां! बटुआ।
सुबह ने फेंक दिया मेहर का रख़्शां<ref>प्रकाशमान</ref> बटुआ॥
चांदनी में तेरे बटुए के मुक़ाबिल होने।
बनके निकला है फ़लक पर महेताबां<ref>चाँद</ref> बटुआ॥
गर चमन में तुझे बटुए की तलब हो तो वहीं।
ज़र भरा गुन्चे का लादें गुलेख़न्दां बटुआ॥
हाथ नाजुक हैं तेरे और वह हैं संगीं वरना।
बनके आ जावे अभी लाल बदख़्शां बटुआ॥
यूं कहा मैं कि यह बटुआ ज़रा हमको दीजे।
हम भी बनवाऐंगे ऐसा ही दुरख़शां<ref>प्रकाशमान</ref> बटुआ॥
सुनके बटुए को दिखाकर यह कहा वाह रे शऊर<ref>विवेक, सभ्यता</ref>।
अरे बन सकता है ऐसा कोई अब याँ बटुआ॥
जब कहा मैंने सबब<ref>कारण</ref> क्या तो हँस के ”नज़ीर“।
यह तो लायी हैं मेरे वास्ते परियां बटुआ॥
शब्दार्थ
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