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बटुआ-2 / नज़ीर अकबराबादी

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तुम्हारे हाथ से होता नहीं एक दम जुदा बटुआ।
यह किस उल्फ़त भरी ने सच कहो तुमको दिया बटुआ॥
मुअत्तर<ref>सुगन्धित</ref> हो रहा है निगहतज़ो<ref>सुगन्ध से भरपूर</ref> ज़ोक़रनफ़िल से।
कहूं मैं इत्रदां<ref>सुगन्ध पात्र</ref> क्यूं साहब इस बटुए को या बटुआ॥
घड़ी गुन्चा घड़ी गुल, फिर घड़ी में गुल से गुंचा हो।
तुम्हारे आगे क्या क्या रंग बदले है पड़ा बटुआ॥
तुम्हें हम चाहें तुम बटुए को चाहो क्या तमाशा है।
हमारे दिल रुबा तुम और तुम्हारा दिलरुबा बटुआ॥
जो तुमने बदले एक बटुए के एक बोसा ही ठहराया।
तो साहब याद रखियो यह हमारा है छटा बटुआ॥
निहायत<ref>अत्यन्त</ref> पुरतकल्लुफ़<ref>सजा हुआ, सुसज्जित</ref> और बहुत खु़शकिता<ref>सुन्दर</ref> नाजुक सा।
बसद ताकीद<ref>सौ बार हठ करके</ref> बनवाया थाा हमने एक नया बटुआ॥
गएए हम इत्तिफ़ाक़न उस परी रू से जो मिलने को।
तो क्या कहिये वही उस दम हमारे पास था बटुआ॥
यकायक आ पड़ी उसकी नज़र इस पर तो ले हम से।
कहा, यह तो बनाया है किसी ने वाह क्या बटुआ॥

बहुत तारीफ़ कीं और हंस दिया जब दिल में हम समझे।
कि यह तारीफ़ कुछ ख़ाली न जावेगी चला बटुआ॥
कभी यूं और कभी वूं देख आखि़र यूं कहा हंस कर।
यह किसका है क़यामत पुर नज़ाकत खु़शनुमा बटुआ॥
कहा जब मैंने हंसकर सौ नियाज़ोंइज्ज़<ref>नम्र निवेदन</ref> से ऐ जां।
इसे मैला न कीजिये, यह है एक महबूब का बटुआ॥
मैं भूले से ले आया था अगर दरकार हो तुमको।
तो मैं इससे भी बेहतर और दूं तुमको मंगा बटुआ॥
कहा हम तो यही लेंगे, तो मैंने फिर कहा साहब।
मैं बेगाना तुम्हें अब किस तरह से दूं भला बटुआ॥
जूं ही यह बात निकली मेरे मुंह से फिर तो झुंझलाकर।
वहीं उस शोख़ ने मारा, मेरे मुंह पर उठा बटुआ॥
कहा मैंने खफ़ा होते हो क्यूं चाहो तुम्हीं ले लो।
यह कहकर मैंने फिर उसकी तरफ ढलका दिया बटुआ॥
चला जब वह ढलकता उसकी जानिब देखिये शामत।
कहीं नागह सरे ज़ानू मैं उसके जा लगा बटुआ॥
तो ले बटुए को और जानू पकड़ कर यूं कहा दुश्मन।
यह तूने आपसे मारा मेरे, वारूं तेरा बटुआ॥
जला दूं टुकड़े कर डालूं वले<ref>कदापि</ref> तुझको न दूं हरगिज<ref>कदापि</ref>।
लगा मेरे बहुत, अब तो यह मेरा हो चुका बटुआ॥
न बटुआ दूं ”नज़ीर“ और तुझसे जानू का भी बदला लूं।
यही धमकी दिखाकर आखि़र उसने उसने ले लिया बटुआ॥

शब्दार्थ
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