भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बड़ा अजीब है अपनी कहानी कहना / नीलोत्पल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

    - 1 -

मैं नहीं जानता
मुझे किन चीज़ों के लिए
बनाया गया है
मैं क्या कर सकता हूं
ऐसे किसी ज्ञान का
जो मुझे ले जाता है
एक अनजान सफ़र की तरफ़

मैं अभी तक की यात्रा हूं
पुल पर उतरता-चढ़ता हुआ
मेरे पास नहीं ख़ास तरह की चिमनियां
जो धुंआ उगलते बदल देती हैं
आसमान के नीले अक्षरों को
दूर जाते परिंदों में

मैं न धुंआ देखता हूं
न आसमान
मैं देखता हूं उन परिंदों को
जो आगे जाकर लुप्त हो जाएंगे

उनके पीछे कुछ नहीं रह जाएगा
सिवाय उस रिक्तता के
जहां पहुंचते हुए
मैं कह सकूंगा अपने ख़ालीपन की कहानी को
 
           - 2 -

बड़ा अजीब है अपनी कहानी कहना
जैसे किसी टहनी को तोड़ लेना
यह जाने बिना कि हम उसका
क्या करने वाले हैं
मैं अपने बारे में अस्पष्ट हूं
सिवाय इसके कि
मेरी कहानी का कोई अंत नहीं

मैं बनता रहूंगा दिन-रात
सर्दी, कांटों, जंगलों, मेमनों,
दूरी सूचक यंत्रों, पत्थरों की अनगढ़ विरासतों,
नृत्यों तलक


मेरी कहानी टहनी की कहानी नहीं है
मैं नहीं जानता उनकी लम्बाई के बारे में

मैं नहीं जानता उसमें उग आए
पत्तों के बारे में

मेरे लिए शब्द एक धागा है
जो मुझे सीता है

     - 3 -

मुझे अपनी इस यात्रा में
ज़्यादा कुछ नहीं कहना है
बस मैं चुप रहना चाहता हूं
इतना चुप कि
जब मैं लौटकर आऊं तो
आवाज़ें उठकर कहीं चली जाएं

मैं उस नन्ही शांत गिलहरी के लिए
तमाम सड़कें भी नहीं चाहता
जहां से गुज़रते हुए
वह भरी रहती है भय से

वह जिस चाव से कुतरती है दाना
वह है मेरी सरहदों में
मैं उसके लिए हज़ारों-लाखों पत्ते,
पेड़ और रोशनी रखता हूं
आवाजे़ं नहीं

आवाज़ों से डरकर वह चली जाएगी
नीले आसमानों में,
ख़ाली पड़े समुद्रों की ओर

वहां वह उदास होगी या ज़्यादा ख़ुश
हो सकता है भटकती रहे पृथ्वी पर
और मैं उसे देख न पाऊं दोबारा
मैं नहीं जानता

ओह !
फुदकती हुई गिलहरियों के बिना
यह पृथ्वी
कितनी ख़ाली, कितनी अशक्त होगी

जैसे मैं आवाज़ों की असभ्य भीड में
खुदाई के बाद मिला हुआ एक स्मृति चिन्ह्
संग्रहालयों के सुरक्षा घेरे में
डरा, सहमा और निसहाय-सा
देखता हूं अपनी इस यात्रा को