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बड़ा कठिन यह जाड़ा / मधुसूदन साहा

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आया है कंपकंपी लगाता
बड़ा कठिन यह जाडा।

कुलफ़ी हुई फरार, संग में
लेकर कोकाकोला,
कितने दिन हो गये न कोई
'ठंढाई लो' बोला,
थर-थर करते स्साब ऐसे ज्यों
पढ़ना पड़े पहाड़ा।
मिलते हैं अब नहीं कहीं पर
लाल-लाल तरबूजे
मुर्गी के डेनों के नीचे
सिकुड़े बैठे चूजे,
जिनको नहीं गरम कपड़े हैं
उनका हुआ कबाड़ा।
जो बिल्कुल बूढ़े-जर्जर हैं
उन्हें बचाती रुई,
चुभती है अब साँझ-सबेरे
हवा हो गई सुई,
खाँसी, सरदी और जुकाम ने
सबका हाल बिगाड़ा।
आया है कंपकंपी बढ़ाता
बड़ा कठिन यह जाड़ा।