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बड़ी-छोटी-बड़ी / रमेश नीलकमल

Kavita Kosh से
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महाशय!

आपका विरोध हो रहा है।

महाशय!

आप कुछ भी लिख मारते हैं

आपके सोचने के तरीके कुछ और हैं

कारण ढूंढ़-ढूंढ़ कर

छोटों को बताते हैं आप बड़ा

बड़ों को छोटा साबित करते हुए।

महाशय!

ये बड़े ऐसे ही बड़े नहीं हुए हैं

नापी है इन्होंने

ऊबड़-खाबड़ सड़कों की लम्बाई

एकतरफा गलियों की दूरी

पार की है

मयखानों से पान-दूकान की सरहदें

इन बड़ों ने

तब छोटे कैसे बताते हैं

आप इन्हें?

महाशय!

आप अपनी सीमा लांघ रहे हैं

महाशय!

आप लिखना बंद कर दें

महाशय!

अनगढ़ अजूबे तरीके से

सोचना बंद कर दें आप

नहीं तो ...

नहीं तो ...

महात्मन्!

सोचिए

सोचिए कि कैसे बड़े हुए आप

आपसे जो बड़े थे

उनकी बड़ी लकीर के सामने

आपने उससे भी बड़ी लकीर

खींच दी

और सोच लिया

कि आप उनसे बड़े हो गए हैं

अपने पांव पर खड़े हो गए हैं

महात्मन्!

फिर आपने यह कैसे सोच लिया

कि आपकी खिंची बड़ी लकीर से भी

बड़ी लकीर

और कोई नहीं खींच सकता?

महात्मन्!

आपने नहीं सोचा कि

अगली पीढ़ी के शब्दकार

कर सकते हैं ऐसा चमत्कार

खींच सकते हैं

बड़ी से बड़ी लकीर

पका सकते हैं मनचाही खीर

जिसे चखने का

आपको गुमान तक न था

महात्मन्!

आदमी अपने समय का

बड़ा होता है

सबके समय का नहीं

जो सबके समय का बड़ा होता है

वह होता है

कोई और

आप, हम जैसे छद्म जीव नहीं

वह तो होता है खुश

अपने से छोटों को

बड़ा होते देखकर

फलते हैं उसके आशीर्वाद

वह होता है खुश

और भी खुश

पर महात्मन्!

आपको क्या हुआ

कि बड़ों की हिमायत में

तोड़ रहे हैं छान-पट्टी

खरच रहे हैं अपना

शब्दकोशी ज्ञान

बघार रहे हैं अपनी

अशोधित शेखी

किसका भला कर रहे हैं आप

बड़ों की या अपनी

छोटों को करते हुए

हलकान

महात्मन्!

आप तो बड़े नहीं हो रहे

बड़े होंगे भी नहीं

रहेंगे छोटे

और छोटे

बहुत छोटे