बड़ी कृपा की आमंत्रण / हरिवंश प्रभात
बड़ी कृपा की आमंत्रण, स्वीकार हमारा आये तुम
पर, पहले स्वागत कर लूँ, जो बिना बुलाये आये हैं।
यूँ बरसात में बादल बरसे
नदियाँ, झरने, गायें गीत,
सागर उमड़े, आँधी लहरें
हर मौसम के होते मीत,
ज़रा ठहर जाना पूनम की रात तुझे भी प्यार करूँगा
पर, पहले पी लूँ जो आँखों से मदिरा छलकाये हैं।
बिन मौसम के साथी मिलना
बिन पूछे कुछ कहा करे,
एकरस से बदलाव है अच्छा
उल्टी हवा जब बहा करे,
दर्पण तुम्हें भी बाद में देखँू अगर वक्त मिल पायेगा
पहले दर्पण टुकड़ों को जो सौ-सौ बिम्ब दिखलाये हैं।
रात अगर रूठेगी भी तो
फिर उसे मना ली जायेगी,
जुल्फ अगर बिखरी भी हो तो
फिर उसे सजा ली जायेगी,
पर, सज धज के बैठ नदी के छोर हमारी आशा में
ठहरो, उनसे मिल लूँ जो अंजुरी से प्यास बुझाये हैं।
अपनी हथेली पर मेरे
हस्ताक्षर करती रहती हो,
मुझे पता है भीड़ में भी
एकांत आह भरती रहती हो,
पर मुझको तो आत्मकथा अधूरी को पूरी करनी है
पहले पढ़ लूँ मेरे नाम अनलिखे पत्र जो आये हैं।
वक्त मिलेगा अगर तो मैं
तुमसे अवश्य मिल जाऊँगा,
जगह मिलेगी तो समस्त,
मैं बिखरी याद सजाऊँगा,
जो भी आता शौक से, नज़रों के द्वारे बेशक आये,
पर पहले अभिसार उन्हें जो घाव मेरे सहलाये हैं।