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बड़ी बूआ / कुमार अनुपम

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बड़ी बुआ से दादी
कभी आँवला भिगवातीं
तो कभी हर्रा पिसवातीं
उलझाए रखतीं
तरह तरह के घरेलू नुस्खों में
लेकिन बड़ी बुआ के बालों पर
जमती ही गई समय की राख
और बड़ी बुआ के बाल
नहीं हो पाए कभी
मेरे बचपन के बालों की तरह गाढ़े और घने
जिन्हें छेड़ने
आया करती थीं बड़ी कक्षाओं की लड़कियाँ

बतलाती थीं दादी
कि बाबा हमारे
बड़े हठी थे
जब प्रतिज्ञा की उन्होंने
कि नौकरी मिलेगी तभी बनवाएँगे अपने बाल
तब बीस पार कर गई थीं बड़ी बुआ

बाल-बच्चे नौकरी की प्रतीक्षा की तरह बढ़ते गए
तो लोग चिढ़ाने लगे
और तंग आकर एक दिन
वे क्या गए
कि नहीं लौटे घर

लोगों ने कहा तो कि साधू हो गए पंडिज्जी
कि नदी में मिली थी जो नंगी विकृत लाश
हो न हो पंडिज्जी की ही थी
जिसे नोच डाला था सियारों ने

लेकिन दादी ने माना नहीं कभी
वह कहतीं अकसर -
‘खतम होते ही पुटकी का सत्तू
वो लौटेंगे घर
गए हैं बड़ी का वर ढूँढ़ने’

मेरे और बहन के मुंडन में
सबसे अधिक खुश थीं तो दादी
इतनी खुश...थीं इतनी खुश...
कि फफक पड़तीं

सारे मेहमान आए
बाबा नहीं आए

बड़ी बुआ बस बटोरती रहीं
गिरते हुए बाल और नेग

सिर पर हमारे फिर आए बाल
पर बाबा को न आना था न आए

मेरी बहन का बाल सँवारतीं जब बड़ी बुआ
दुहरातीं दादी का गीत -
‘बबुनी के सिर पर हैं बाल जितने
उसके भी दो गुने, दस गुने, सौ गुने
लहर लहर लहकें अरमान सपने।’

हमजोलियाँ दस दिशा से पुरियातीं गीत
किंतु हर बार
कंघी में अरझ अरझ जाती
बड़ी बुआ की आवाज।