भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बड़ी रे विपतिया रे हंसा, नहिरा गँवाइल रे / कबीर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

॥निर्गुण॥

बड़ी रे विपतिया रे हंसा, नहिरा गँवाइल रे।
नाहिं करलाँ कछुवे हम रे दान से,
बन्धनवाँ सेहो रे खोलिये लेलकै रे॥बड़ी रे.॥
मैया मोरी रोबै रे हंसा, रोबै छै बहिनियाँ रे हो,
रोबै छै नगरिया केरो हो लोग।
सुन्दरी सिर धुनि-धुनि रोबै छै रे॥बड़ी रे.॥
भवजल नदिया रे हंसा, लागै छै भयावह रे,
कौनी विधि उतरब हम रे पार।
रे जाइब आपन घरवा रे॥बड़ी रे.॥
गुरु के शब्द रे हंसा, गठरी बनैबै रे,
कि वही चढ़ी उतरब रे पार।
रे जाइब आपन घरवा रे॥बड़ी रे.॥
साहेब कबीर रे हंसा, गाबै छै निरगुनियाँ रे।
कि संतो जन लेहो न विचार रे॥बड़ी रे.॥