बड़े बली रहे वे / विजयशंकर चतुर्वेदी
वे जब तक रहे
वायु-पृथ्वी-जल-आकाश
अग्नि में वास करते रहे
अन्धेरी तँग गलियों से
उठाए चकमक पत्थर
पैदा की आग
खाते रहे जँगली पशुओं को भून-भून
वे जब तक रहे
करते रहे दैत्यों से मुठभेड़
पछाड़ते रहे देवताओं को
देवताओं ने पछाड़ा उन्हें देवताओं को
वे तमाम कलाएँ हथेलियों में दाबे
अंकित करते रहे स्वर्णयुग
मोरपँख लिखित
भोजपत्री पृष्ठ पहुँचाते रहे हम तक
उन्हें नहीं मिली प्रेम से बैठ बतियाने की फ़ुर्सत
खड़खड़ाते रहे बन्द मिलें
भाप के इंजिन दौड़ाने में माहिर वे फिरन्तू सनसनाते फिरे अन्तरिक्ष में
अपने समय की सबसे ख़ूबसूरत स्त्रियों से प्रेम की कामना लिए
वे गए कई-कई बार पर्वतारोहियों के साथ गन्धर्वो के देश
ढूँढ़ते रहे सदियों तक निर्जन में
गगनचुम्बी इमारतों से देखा लटक-लटक
कहीं नहीं था प्रेम करने का माहौल
कोई हीर-राँझाा नहीं हुआ उनके समय में
वे गुज़रते सहम-सहम तंग गलियों से
सड़कों पर खींचते रहे बेलन
बिखेरते रहे गिट्टी, मुरम-मिट्टी
राजपथ पर कभी भी नहीं रहीं उनके खड़े होने की वजह
वे अदबदाकर गिरते-पड़ते लहूलुहान
बनाते क़दमों के निशान भागते रहे अनवरत
साँसें दुरुस्त करते पार करते रहे हर सदी का जंगल
लिये चकमक पत्थर पुरातन
सुलगाते रहे आग
बड़े बली रहे वे
घात लगा कर बैठे छली देव
अब भी क्या बिगाड़ सकते हैं उनका?