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बड़े हुए भ्रम से लड़ते हुए / विजय किशोर मानव
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बड़े हुए भ्रम से लड़ते हुए
थाली का चांद पकड़ते हुए
उंगलियां पकड़ता सूरज यहीं
देखा है सिर पर चढ़ते हुए
छाया से ईंधन दिखने लगे
आंधी में पेड़ उखड़ते हुए
हम हुए नुमाइश जैसे
रोज़ नए चेहरे गढ़ते हुए
आंखों की रोशनी गई
उजले विज्ञापन पढ़ते हुए