भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बड़े हुए भ्रम से लड़ते हुए / विजय किशोर मानव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बड़े हुए भ्रम से लड़ते हुए
थाली का चांद पकड़ते हुए

उंगलियां पकड़ता सूरज यहीं
देखा है सिर पर चढ़ते हुए

छाया से ईंधन दिखने लगे
आंधी में पेड़ उखड़ते हुए

हम हुए नुमाइश जैसे
रोज़ नए चेहरे गढ़ते हुए

आंखों की रोशनी गई
उजले विज्ञापन पढ़ते हुए