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बढ़ई / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
सूखी लकड़ी काट-छाँट कर क्या से क्या रच डाले
हाथी, घोड़े, तोता, मैना, साधू और संन्यासी
बेलन, चकला, चैकी, कीया, पौआ, पच्चल, पासी
काठ छील कर राजसिंहासन तक को खोद निकाले।
आसन-सिंहासन-कत्र्ता के हिस्से खाट-खटोली,
चरकी हुई चूल स्वप्नों की झोंलगा हंै इच्छाएँ
खड़े महाजन खाता खोले इनके दाएँ-बाएँ
कभी-कभी तो अपना जीवन इनको लगे ठिठोली।
जितनी बार चलाता आरी जीवन पर चल जाती
पौनिया का अभिशाप उठाए चला नहीं अब जाता
आरी और कुल्हाड़ी से भी कितना कठिन विधाता
संघातों के जो साधन हैं, सब इन पर संघाती ।
शीशम शाल घुनाते देखा, दीमक को उपटाते
वाराहा बीमारी को बरगद में देखा छाते ।