बढ़ती उम्र संग / प्रगति गुप्ता
बढ़ती उम्र के संग
ज्यों-ज्यों मज़्ज़ा का साथ
मांस अस्थियों से छूटता गया
छूटे सभी शृंगार नख-शिख देह के
बस मोह उनसे जुड़ा
न कभी छूट सका...
शिथिल शरीर और
कांपते अस्थि पिंजर ने
पल-पल पर सचेत किया
हर गुज़रता छूटता पल
ज़मीन पर ढीली पड़ती
पैरों की पकड़ की भी
चेतावनी पल-प्रतिपल देता रहा...
पर मन-मष्तिष्क के
कोने में बैठा अहम
छूटेगा सब यहीं बस
इसी सत्य को न स्वीकार सका...
हर पल चेताती रही प्रकृति
बचपन से ज़रा तक की यात्रा में
शरीर संग-संग मष्तिष्क के भी
शिथिल पड़ते परम सत्य की...
बस ज़रा-जरा सा
अपने अहम को जी लेने को
जरा के बाद की नियति से
परिचय न करा सकी...
ज्यों ज्यों टूटता गया
अहम वक़्त के संग-संग
मोह भी शनै:-शनै: शैय्या तक
पहुँचने पर टूट ही गया
मोह और अहम मुक्त आया था जीव
सब छूट यहीं जीव का
उन्मुक्त प्रस्थान हो गया...