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बढ़ती हुई स्त्रियाँ / अंकिता जैन

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वह आगे बढ़ रही थी,
पीछे छूट रहे थे लहूलुहान कदमों के निशान
उसे परवाह नहीं थी,
यह दूरी उसने सदियों में तय की थी,
छिले हुए तलवों से टपकते लहू से ही वह लिखने लगी अपनी कामयाबी की कहानियाँ।
आवाज़ें अब भी आ रही थीं,
जिन्हें पहले वह घर के भीतर,
घूँघट के भीतर,
चौखट के भीतर से सुनती थी
अब बाहर निकली तो फेंके जाने लगे,
इन्हीं कुंठाओं, द्वेष और जलन में लिपटे कंकड़

हँसने वालों के चेहरे बदल रहे थे
हँसी नहीं।
ठहाकों के साथ लार टपकती,
उस जैसा कामयाब होने की चाहत भरी लार
लेकिन हँसने वाले अपनी बाँह से लार पोंछते जाते
और चार लाइन का मंत्र जपते जाते,

"थीसिस में अच्छे नंबर आ गए प्रोफेसर के साथ सोई होगी"

"दफ्तर में तरक्की मिल गई बॉस के साथ सोई होगी"

"घर में बंटवारे में ज़्यादा पैसा मिल गया, ससुर को पटा के रखती है"

"समाज में कोई पद मिल गया, देखो कैसे ठिलठिला कर हँसती है"

धीमे-धीमे यह मंत्र फैलता गया,
दोहे, कविता, जाप, कहानी
जिस रूप में संभव था
उस रूप में अगली पीढ़ी को मिलता गया

अब यह नाकामयाबों का गुरु मंत्र था,
पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसी मंत्र में लपेटकर
उसकी राहों में अंगार बिछाई जाती रही,
आज भी बिछाई जा रही है,
लेकिन अब उसे परवाह नहीं
अंगार के डर से रुकना तो उसने कबका छोड़ दिया।
धीमे-धीमे उसके पैरों में लग जाएँगे
'हर्ड इम्युनिटी' के चक्के
और तब
फूँके जाएँगे गुरुमंत्र बाँटकर आने वाली पीढ़ियों को दिगभ्रमित करने वालों के पुतले।

और गूँजेंगे ठहाके हमारे, उनके, सबके
जिनके लहूलुहान क़दमों ने तब तक
नाप ली होगी धरती,
लिख दिया होगा आसमां पर भी अपना नाम।