भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बढ़ते चलो / महेन्द्र भटनागर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राह पर बढ़ते चलो !

दूर मंज़िल है तुम्हारी,

पर, क़दम होंगे न भारी,

आज तक युग की जवानी ने कभी हिम्मत न हारी !

आँधियों से जूझनेवालों !

निडर हँस-हँस प्रखर बढ़ते चलो !

बल अमिट विश्वास का है,

बल अतुल इतिहास का है,

बल अथक भावी जगत में फिर नये मधुमास का है,

ओ युवक ! निज रक्त से नव-दृढ़

इमारत विश्व में गढ़ते चलो !

तम बिखरता जा रहा है,

नव सबेरा आ रहा है,

सृष्टि का कण-कण सृजन का गीत अभिनव गा रहा है,

इसलिए तुम भी

नये युग की प्रतिष्ठा के लिए लड़ते चलो !

1952