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बढ़ाओ न तुम इतनी भी दूरियाँ / दरवेश भारती
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					बढ़ाओ  न  तुम  इतनी  भी  दूरियाँ
कि चुभने लगें यादों  की किरचियाँ
इधर  हमने गुपचुप  कोई  बात की
उधर कान  बनने लगीं  खिड़कियाँ
बिलखते  रहे  हादिसों   में अवाम
सियासत की बनती रहीं सुर्ख़ियाँ
हुआ  है  हमेशा   महाभारत  एक
कोई ‘द्रौपदी’ आयी जब दरमियाँ
सुनायी  खरी-खोटी  बेटे ने  जब
भिंची रह गयीं बाप की मुट्ठियाँ
फ़लक पर कबूतर दिखे जब कभी
बहुत  याद आयीं  तेरी  चिट्ठियाँ
डरो मत, दुखों के पहाड़ों के बाद 
सुखों की भी 'दरवेश' हैं वादियाँ
 
	
	

