बढ़ावा / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
बढ़ा पाँव आगे नए पथ के राही,
तुम्हारी हीं मंज़िल तुम्हें ढूँढती है।
न पूछो पता तुम किसी से डगर का,
कि मंज़िल तुम्हारा पता पूछती है।
मिलें शूल तुमको पड़ें पग में छाले,
न रुकना कहीं भी अरे जाने वाले।
तुम्हें टोकने को बवंडर उठेंगे,
मगर दूर जाना है दीये जला ले।
न मांगो किसी से तू नैया ठहर कर,
लहर भी लगन के चरण चूमती है।
बढ़ा पाँव आगे नए पथ के राही,
तुम्हारी हीं मंज़िल तुम्हें ढूँढती है।
मुसाफिर वही जो नया पथ बना दे,
अँधेरे में चलकर नया युग बसा दे।
जो पत्थर को देकर चरण धूलि अपनी,
युगों की अहल्या में जीवन जगा दे।
मशानो के मुर्दे तुम्हें ढूँढते है,
दिशा भी तिमिर में नहीं सूझती है।
बढ़ा पाँव आगे नए पथ के राही,
तुम्हारी ही मंज़िल तुम्हें ढूँढती है।
जरा छोड़ते जा निशानी क़दम की,
जिसे देख दुनिया भी पथ खोज लेगी।
लगेगी वहीं पर हजारों की महफ़िल,
तेरा नाम ले हर गली ये कहेगी।
बढ़े चल ओ राही! तू लू में, लपट में,
शहीदों को दुनिया नहीं भूलती है।
बढ़ा पाँव आगे नए पथ के राही,
तुम्हारी हीँ मंज़िल तुम्हें ढूँढती है।