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बढ़ा है ख़ुद का ख़ुद से फ़ासला क्या / सूरज राय 'सूरज'

बढ़ा है ख़ुद का ख़ुद से फ़ासला क्या।
कहीं थकने लगा है रास्ता क्या॥

हथेली कान पर रक्खा है मरघट
भटकती है कोई गूंगी सदा क्या॥

तुम्हारी आग आँधी भी तुम्हारी
मैं तिनका घास का मेरी रज़ा क्या॥

फ़क़त इल्ज़ाम, ताने और हिक़ारत
रिहाई ये है गर, तो है सज़ा क्या॥

सभी किरदार मुँह ढाँके हुए हैं
वफ़ा के मंच का पर्दा उठा क्या॥

हुआ कुछ भी नहीं होगा भी कैसे
अगरचे पूछते हैं सब, हुआ क्या॥

बदन साँपों के नीले पड़ गए हैं
किसी इन्सां से पाला पड़ गया क्या॥

मेरा बच्चा ये अक्सर पूछता है
बताओ क्या है केसरिया, हरा क्या॥

चटकना आईने का बेसबब ही
बताता है मुझे मेरा पता क्या॥