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बढ़ रही वासना की विशाल बीमारी / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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बढ़ रही वासना की विशाल बीमारी।
अब शरण माँगता हूँ जगदम्ब तुम्हारी।।

जर्जर हुई जा रही प्रतिदिन विषय-रोग से काया।
दिन गिनते नाचती पास ही खड़ी मौत की छाया।
माँ अभीं बंद हो सकती आँख हमारी- ।।1।।

विजय-दुंदुमी बजा रहे उर में अध शुंभ-निशुंभा।
कहाँ सो रही सिंह-वाहिनी दौड़-दौड़ जगदम्बा।
गिरि-सुता न किसकी विपदा तुमने टारी- ।।2।।

नोंच अभाव-कुभाव हमें करते मनमानी क्रीड़ा।
आँख खोल कर देंख भगवती मेरी दारूण-पीड़ा।
निर्लज्ज नाचता दर-दर काम मदारी- ।।3।।

हृदय कंज को रौंद रहे दुर्गुण के भीषण हाथी।
माँ बढ़कर मोर्चा थाम ले तुम्ही विपति की साथी।
किस-किस की बिगड़ी तुमने नहीं सुधारी- ।।4।।

प्रिय के संग सदा हो साँसे मत विछोह हो पाये।
यदि ऐसा हो भी तो माँ-चरणों में प्राण समाये।
ज्यों तेल ही बुझती बाती बेचारी- ।।5।।

मलिन गली में फिरती मेरी मति को करले चेरी।
पतित पावनी माँ क्या इतनी भी न सुनोगी मेरी ।
अंचल में ढक लो करूणामयी मतारी- ।।6।।

अध करना मेरा स्वभाव है क्षमा तुम्हारा बाना।
यह तो कोई नया नहीं युग-युग का काम पुराना।
पय पिला क्षुधित बछड़े को धेनु दुधारी- ।।7।।

देर न कर भटकते कट गया जीवन का दिन लम्बा।
अब निज परम कृपा का अनुभव मुझको करो पराम्बा।
उलझी पहेलियां माँ सुलझा दे सारी- ।।8।।

माता के सनेह-पलने में ‘पंकिल’ पगला झूले।
माँ की चरण-छाँव में मेरी भाव-बल्लरी फूले।
सुधि लेती रहना नित गिरिराज-कुमारी- ।।9।।