बतकही / रचना दीक्षित
घर की छत पर रखे
अचार, पापड़ और बड़ियाँ
मायूस थे
पास की छत पर पसरी
ओढ़नी और अम्मा की साड़ी
धीमे धीमे बतिया रहे थे
इतनी देर हो गयी,
कहाँ रह गयी वो?
आचार, पापड़ और बड़ियों ने
अपनी अनभिज्ञता जताई,
पडोसी छत से गुहार लगाई
रुमाल ने छोटे शरीर की दुहाई दी
तो अम्मा की साड़ी ने
बढती उम्र की
आखिर निकलना ही पड़ा ओढ़नी को
कुछ दूर ही उड़ी
एक पेड़ की डाल पे,
बादल की छाँव में
एक सफ़ेद सुनहरा देहावरण झूलता पाया
कुछ अनहोनी की आशंका से दिल धड़का
अगले ही पल
पास के पहाड़ की ओट से
आती कुछ आवाजें
जाकर देखा
अपने स्वभाव के विपरीत
रुपहले गोटे वाले मटमैले घाघरे
तिस पर
काले काँच सी पारदर्शी चुनर में उसे
लौट आई ओढ़नी
चेहरे पे शरारत देख
खीजी और बोल उठी साड़ी
अरे! ऐसा क्या देख आई
दोनों हाथों से चेहरा छुपा के वो बोली
आज मैंने सांवले,
मजबूत कद काठी वाले
बलिष्ठ पहाड़ की बाँहों में
लिपट लिपट कर
धूप जीजी को नहाते देखा है,
सो आज न आयेंगी जीजी