बताइए, महामहिम ! / विमलेश त्रिपाठी
हमें योग नहीं, महामहिम !
हमें रोटी चाहिए
हमें बुल्लेट ट्रेन नहीं पैरों में ताक़त चाहिए कि बोझ उठाते वक़्त गिर न पड़ें मुँह के बल
हमें संसद से टेलीकास्ट होने वाला भाषण नहीं
दवाई चाहिए
हमें अपने बच्चो के लिए महँगे खिलौने नहीं चाहिए
न सायकिल न कम्प्यूटर न चॉकलेट के डब्बे
सुबह शाम एक कटोरा दूधभर चाहिए ।
चाहिए लरकोरियों के लिए भरपेट भात
बूढ़े माता-पिता के सिर पर सरकण्डे की ही सही
छत चाहिए
एक चटाई कम से कम उनकी बूढ़ी हड्डियों को सुस्ताने के लिए ।
विदेश क्या हमें तो पास के बाज़ार तक की भी यात्रा न चाहिए
हम अपना बटइया खेतभर घूम लें
उतनी ताक़त
कि मिल तक जा सकें
रह सकें खड़ा मशीनों के साथ कम से कम बारह घण्टे ।
सच कह रहे हैं, महामहिम !
किरिया खाकर कह रहे हैं
हम चुनाव का क्या करें ?
क्या करें इस लोकतन्त्र का ?
कि इस देश का ही क्या करें ?
जो बार-बार कभी अकाल कभी सूखा तो कभी चमकी बुखार की शक्ल में
हमारी पीठ पर ही हण्टर की तरह गिरता है ।
बताइए, महामहिम !
हम आपके उत्तर की प्रतीक्षा में सात दशकों से एक अन्धे कुएँ में खड़े हैं ।