भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बताए कोई हम किधर जा रहे हैं / विनोद तिवारी
Kavita Kosh से
बताए कोई हम किधर जा रहे हैं
पता कुछ नहीं है मगर जा रहे हैं
निकल आए हैं अजनबी जंगलों से
समझते थे हम अपने घर जा रहे हैं
नहीं है कोई मीर इस कारवाँ का
जो कह दे सही राह पर जा रहे हैं
हम उलझाव भटकन दिशाहीनताएँ
नई नस्ल को सौंप कर जा रहे हैं
वहाँ की कभी कल्पना तक नहीं की
जहाँ पर मेरे वंशधर जा रहे हैं