भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बदगुमाँ हम से हो गया कोई / परमानन्द शर्मा 'शरर'
Kavita Kosh से
बदगुमाँ हम से हो गया कोई
बहरे-ग़म में डुबो गया कोई
उनको अपना के मैं समझता था
आसरा दिल का हो गया कोई
जान तक दे राहे-उल्फ़त में
इश्क़ के दाग़ धो गया कोई
रिंद तो हश्र में थे होंठ सिये
फ़िक्रे-जन्नत में खो गया कोई
मेरे मरने के बाद मदफ़न पर
चुपके-चुपके-से रो गया कोई
शम्मे-बे-मिहर को ख़बर न हुई
जान से हाथ धो गया कोई
देख कर लाश को `शरर' की कहा
रोते-रोते है सो गया कोई