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बदन की ओट से तकने लगा है / प्रेम कुमार नज़र

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बदन की ओट से तकने लगा है
वो अपना ज़ाइका चखने लगा है

मुंडेरों पर परिंदे चहचहाए
पस-ए-दीवार फल पकने लगा है

बहुत लम्बी मसाफ़त है बदन की
मुसाफ़िर मुब्तदी थकने लगा है

उसे अंधा सफ़र क्या रास आया
क़दम बे-साख़्ता रखने लगा है