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बदन तक मौजे-ख़्वाब आने को है फिर / परवीन शाकिर

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बदन तक मौजे-ख़्वाब<ref>सपने की लहर</ref>आने को है फिर
ये बस्ती ज़ेरे-आब आने को है फिर

हरी होने लगी है शाख़े-गिरिया<ref>विलाप की डाली</ref>
सरे-मिज़गां<ref>पलकों पर</ref> गुलाब आने को है फिर

अचानक रेत सोना बन गयी है
कहीं आगे सुराब<ref>मृग-मरीचिका</ref> आने को है फिर

ज़मीं इनकार के नश्शे में गुम है
फ़लक से इक अज़ाब आने को है फिर

बशारत दे कोई तो आसमाँ से
कि इक ताज़ा किताब आने को है फिर

दरीचे मैंने भी वा<ref> खोल दिए </ref> कर लिये हैं
कहीं वो माहताब आने को है फिर

जहाँ हर्फ़े-तअल्लुक़<ref>'सम्बन्ध'शब्द</ref>हो इज़ाफ़ी<ref>सम्बन्ध बढ़ाने वाला</ref>
मुहब्बत में वो बाब<ref>अध्याय</ref> आने को है फिर

घरों पर ज़ब्रिया<ref>जबरदस्ती</ref> होगी सफ़ेदी
कोई इज़्ज़्त-म-आब<ref>सम्मानित व्यक्ति</ref> आने को है फिर

शब्दार्थ
<references/>