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बदन पे ज़ख़्म पत्थर कर रहे हैं / सूरज राय 'सूरज'

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बदन पर ज़ख़्म पत्थर कर रहे हैं
कोई फल पेड़ का देखो पका क्या॥

मरीज़े-इश्क़ मर जायेगा अब तो
था देना ज़हर दे दी है दवा क्या॥

मुसलसल घुट रहा है दम हवा का
हवा को चाहिए ताज़ा हवा क्या॥

तुझे ऐ वक़्त मैं दाता कहूँ क्यूँ
तज्रबों के सिवा तूने दिया क्या॥

विदेशों से ये बेटे लिख रहे हैं
हमारे वास्ते तुमने किया क्या॥

जहाँ ने ले लिया मेरा यक़ीं भी
मेरी हस्ती में अब मेरा बचा क्या॥

बढ़ी है रोशनी "सूरज" तुम्हारी
बदन के साथ अब दिल भी जला क्या॥