बदन में आग सी चेहरा गुलाब जैसा है 
के ज़हर-ए-ग़म का नशा भी शराब जैसा है 
कहाँ वो क़ुर्ब के अब तो ये हाल है जैसे
तेरे फ़िराक़ का आलम भी ख़्वाब जैसा है
मगर कभी कोई देखे कोई पढ़े तो सही 
दिल आईना है तो चेहरा किताब जैसा है 
वो सामने है मगर तिश्नगी नहीं जाती 
ये क्या सितम है के दरिया सराब जैसा है 
"फ़राज़" संग-ए-मलामत से ज़ख़्म ज़ख़्म सही 
हमें अज़ीज़ है ख़ानाख़राब जैसा है