भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बदरा के बारात / बैद्यनाथ पाण्डेय ‘कोमल’
Kavita Kosh से
बरखा के शुभ दिन में उमड़ल
बदरा के बारात।
घासन के महफिल में बरसल
बूँदन के गुलपास;
फूलल-फरल अरे कहिया के
अब धरती के आस;
बिछल बिछौना हरियाली के
अब धरती इठलात।
मकई बालन के सेहला ले
नाचल ढुम-ढुम चाल;
फूलन के थरिया ले घूमल
ओढ़उल लाले लाल;
पुरवा-पछिया के झोंका से
बाल छड़ी सिहरात।
मृदुल चमेली के डालिन से
उड़ल गंध-मधु धार;
रिमझिम-रिमझिम बरस रहल बा
अब दुलहिन के प्यार;
दुलहिन के मनवाँ में जागल
मधुर मिलन के बात।
बरखा के शुभ दिन में उमड़ल
बदरा के बारात।