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बदलता परिदृश्य / शैलेन्द्र चौहान
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अब
जब बहार जाने को है
और टूटने को हैं भ्रम
याद आने लगी हैं
बीती बातें
बिछड़े लोग
स्थान छूटे हुए
छँटने को हैं मेघ
बदलने को है मौसम
तो मैं प्रसन्न ही हूँ
बहुत बरसे तुम मेघ
उपहार तुमने दिया
उर्वरता का धरा को
दुख है बस पावस बीतने का
पर कहीं संतुष्ट भी हूँ
बीतनी ही थी रुत
आखिर
ये कोई कांगो (जेर) का
भूमध्यसागरीय
भू-भाग तो नहीं
कि बरसते रहें
बारहों माह मेघ
आएगी सुखद शरद
शिशिर फिर हेमंत
बदलती ऋतुओं के
साथ-साथ
बदल जाएँगे परिदृश्य।