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बदलते मनुष्य का रंग विचार की तरह नहीं होता / राकेश रोहित

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यह देखो -- हरा, उन्होंने कहा
मैंने देखा वो पत्तियाँ थीं
और मुझे उनमें मिट्टी का रंग दिख रहा था ।
ऐसा अक्सर होता है
मुझे बच्चे की हँसी नीले रंग की दिखती है
समन्दर की तरह विराट को समेटे
और लोग बार-बार कहते हैं
पर उसकी शर्ट का रंग तो लाल है !

जैसे बदलते मनुष्य का रंग
उसके विचार की तरह नहीं होता
खो गयी चीज़ों का रंग वही नहीं होता
जो खोने से पहले होता है ।
जैसे बीजों का रंग वह कुछ और होता है
जो उन्हें फूलों से मिलता है
और वह कुछ और जो मिट्टी में मिलता है ।

इस सदी के बच्चे बहुत विह्वल हैं
वे अपना खेलना छोड़
घने जंगलों में भटक रहे हैं
एक अँधेरे कुएँ में खो गई हैं उनकी सारी गेंदें
और बारिश में आसमान की पतंगों का रंग उतर रहा है ।

चीज़ें जिस तेज़ी से बदल रही हैं
रंग उतनी तेज़ी से नहीं बदलते ।
इसलिए खीरे के रंग का साबुन
मुझे खीरा नहीं दिखता
और मैं जब अँधेरे में चूम लेता हूँ
महबूब के होंठ
मैं जानता हूँ प्यार का रंग गुलाबी ही है ।

ऐसे ही एक दिन मुझसे पूछा
पीली सलवार वाली लड़की ने
उम्मीद के छोटे-छोटे
कनातों का रंग क्या होगा ?
मैं उसकी आँखों में उजली हँसी देख रहा था
उसके कत्थई चेहरे को
मैंने दोनों हाथों में भर कर कहा
ओ लड़की ! उनका रंग निश्चय ही
तुम्हारे सपनों की तरह इन्द्रधनुषी होगा ।