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बदलाव / असंगघोष
Kavita Kosh से
यह आईना
रोज-रोज
मुझे घूरता है
जब भी
मैं जाता हूँ
इसके सामने
शायद मुझे पहचानने का
गम्भीर जतन किया करता हो
मुझे घूरते-घूरते
कभी इसकी भौंहें
तन जाती हैं
जिसे देख
मेरे अन्दर का आदमी
काँप-सा जाता है
पता नहीं
अब यह क्या कहर बरपाएगा
इसे बेवजह
मुस्कराते मैं
कम ही देख पाया हूँ
शायद ही कभी यह
खिलखिलाकर हँसा हो!
कभी
इसकी आँखों में मुझे
महासमुद्र-सा अथाह
विश्वास दिखाई दता है
इसी विश्वास और इसके
मजबूत कंधों को देख
कह सकता हूँ
एक दिन
नए बदलाव के साथ
यह जरूर कुछ कर दिखाएगा।