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बदल गए क्या नियम जीवन के? / दिनेश श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
आह, निर्धारक नियति के
विषम कैसी यह समस्या?
थक चुके हैं प्राण मेरे
साथ दे पाती न काया
दिग्भ्रमित भटका बहुत पर
समझ में आयी न माया.
सत्यता मन वचन कर्मों की
न करती शांत ज्वाला जठर-अग्नि की
पा रहा दुत्कार प्रति पल सफल लोगों की
मिट चुकी है आस सीधे सरल जीवन की.
आज तक ना समझ पाया
नृत- अनृत का क्लिष्ट अंतर
सफलता का वरण कर लूँ
जब भी कुचलूँ आत्म-अंतर.
किन्तु भय बढ़ने लगा है आज
दूर शायद अब नहीं वह रात
जब कि दिन भर की दबाई आत्मा
करेगी ना ह्रदय पर आघात.
आह, निर्धारक नियति के
पूछ लूँ क्या एक सीधा प्रश्न ?
देख कर प्रतिपल विजय
इन अनृत बातों की
मैं भ्रमित हूँ या कि तुमने
किये परिवर्तित सनातन
नियम जीवन के??
(रचनाकाल - ४.७.१९७९)