बदल गए परिप्रेक्ष्य / राम सेंगर
बदल गए परिप्रेक्ष्य
कालगति
हम ही बदल न पाए।
जड़ ही पकड़े रहे
बदलते भी तो कैसे
इतना जो जी पाए
यही वज़ह हो शायद ।
कहा प्रणम्यों ने —
जड़ ऊँचाई देती है,
इस रहस्य को सुलझाने
की नहीं क़वायद ।
जत्थेदारों के टुटकों से
प्रत्युत्पन्न बुद्धि के संकट
और अधिक गहराए ।
धर्म समाज राजनय के
आडम्बर लाँघे,
हुए नहीं भयभीत,
भावना का सच पकड़े —
जिन राहों पर चले
और भी कठिन हो गईं,
सुगम बनाया
भवबन्धन में जकड़े-जकड़े ।
महिमामण्डित नहीं किया
पीड़ा को, नाहक आपा खोकर
सदमे सहज उठाए ।
लोच और लाघव
स्वभाव का प्रणत राग थे
बगलग़ीर होकर
न किसी को
भौंका खंज़र ।
कैफ़ियतों में
सच न हुआ होता तो अब तक
पापबोध में
फुँक ही जाता पूरा पंजर ।
बावज़ूद अच्छा होने के
खोट तालिका में चिन्हित हो
सबसे ऊपर आए ।
बदल गये परिप्रेक्ष्य
कालगति
हम ही बदल न पाए ।