बदल दी चोट खाए बाज़ुओं ने धार चुटकी में / नवनीत शर्मा
बदल दी चोट खाए बाज़ुओं ने धार चुटकी में
छिना था मेरे हाथों से जहाँ पतवार चुटकी में
उन्हें तुमने कहा था एक दिन बेकार चुटकी में
चढ़े आते हैं टी.वी. पे जो अब फ़नकार चुटकी में
जगाई याद की तूने अजब झंकार चुटकी में
लो मेरे दिल के फिर से बढ़ गए आज़ार चुटकी में
मोहब्बत, चैन या एतमाद की मंजिल नहीं मुश्किल
मेरे कदमों को तू बख़्शे अगर रफ़्तार चुटकी में
न माथे पर शिकन कोई, न दिल में हूक, हैरत है
यही हैं लोग क्या, जिनका छिना घर-बार चुटकी में
यह दुनिया हाट हो जैसे, है बिकवाली ज़रूरत की
कि सर पर से हथेली ले गई दस्तार चुटकी में
अजब उलझन का ये मौसम कि जानम भी सियासी है
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इक़रार चुटकी में
सुनो, जागो, उठो, देखो कि बरसों बाद मौका है
अभी तुमको गिराने हैं कई सरदार चुटकी में
'नहीं' कहना हुनर ऐसा जिसे हम सीख न पाए
जो हमसे खाल भी माँगी, कहा, 'सरकार! चुटकी में'
अकेले जूझना है जीस्त नदिया, मौत सागर से
यहाँ कोई नहीं ले जाए जो उस पार चुटकी में
है बहरो-वज़्न कैसा ये तो द्विज उस्ताद ही जाने
कहा सतपाल ने तो कह दिए अश्आर चुटकी में.